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    2014 से बढ़कर BJP को 2019 में 50% वोट शेयर वाली मिलीं 224 सीटें, पर विपक्ष को दिख रही उम्मीद की किरण

    ntexpressBy ntexpressJune 26, 2023No Comments14 Mins Read
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    नई दिल्ली: दिप्रिंट के एक विश्लेषण से पता चलता है कि यदि गैर-भाजपा उम्मीदवारों, निर्दलीय उम्मीदवारों और नोटा के सभी वोटों को एक साथ जोड़ भी दिया जाता, तो भी भाजपा 2019 में 224 सीटें जीतती जो कि बहुमत के आंकड़े से केवल 48 सीटें कम होती.

    जिन 436 निर्वाचन क्षेत्रों में वह मैदान में थी, उनमें से आधे से अधिक में भाजपा ने 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर हासिल किया. वास्तव में, इस विशाल वोट शेयर से भाजपा ने जो 224 सीटें जीतीं, वह 1984 के बाद से किसी भी एक पार्टी के लिए सबसे अधिक है.

    विशेष रूप से, 2014 के लोकसभा चुनावों में केवल 136 भाजपा सांसदों ने 50 प्रतिशत या उससे अधिक वोट शेयर हासिल किया था. पार्टी ने इस वोट शेयर के साथ न केवल अपनी सीटों की संख्या में बढ़ोतरी की है, बल्कि व्यापक भौगोलिक विस्तार में ऐसी जीत भी दर्ज की है.

    क्रेडिटः रमनदीप कौर । दिप्रिंट टीम

    इसलिए, जो लोग 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा से मुकाबला करने के लिए एक विशाल गठबंधन की कल्पना कर रहे हैं, उनके लिए चुनौती ज़बरदस्त लगती है. हालांकि, विपक्षी दलों के सदस्यों – जिनमें से 15 ने संयुक्त रणनीति बनाने के लिए शुक्रवार को पटना में बैठक की -उनका दावा है कि ऐसी संख्याएं पूरी कहानी नहीं बताती हैं.

    दिप्रिंट से बात करने वाले राजनीतिक विश्लेषकों ने भी यही राय रखी.

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    राजनीति वैज्ञानिक सुहास पल्शीकर ने कहा, भारत फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (एफपीटीपी) चुनावी प्रणाली का पालन करता है – जहां सबसे अधिक वोट पाने वाला उम्मीदवार जीतता है, भले ही उसके पास बहुमत हो या नहीं – इसलिए वोट शेयर की केवल सीमित प्रासंगिकता है.

    पल्शिकर ने दिप्रिंट को बताया,“हमारे एफपीटीपी सिस्टम में, किसी निर्वाचन क्षेत्र में 50 प्रतिशत से अधिक वोटों से जीतने वाले उम्मीदवार का मतलब उम्मीदवार या पार्टी की स्थानीय लोकप्रियता से ज्यादा कुछ नहीं है. लेकिन अगर ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या बढ़ती है, जैसा कि 2019 में भाजपा के मामले में हुआ, तो यह निश्चित रूप से उस पार्टी के बढ़ते वर्चस्व को रेखांकित करता है.”

    हालांकि, उन्होंने कहा कि कुल प्रतिशत में वोट शेयर से केवल इतना ही हासिल किया जा सकता है और पार्टियां इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं.

    उन्होंने कहा, “अधिक सीटें जीतने के लिए, किसी पार्टी को केवल वोट शेयर में कुल मिलाकर बढ़ोत्तरी दर्ज़ करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उन निर्वाचन क्षेत्रों में पर्याप्त वोट प्राप्त करने के बारे में अधिक व्यवस्थित रणनीति बनाना है जहां वे कम अंतर से हार गए हैं. अधिकांश पार्टियां इसके बारे में जानती हैं और इस बिंदु पर ध्यान देती हैं.”

    उनके अनुसार, भाजपा को अपने गढ़ों को बरकरार रखने के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी अपनी सीटें बढ़ाने के लिए संतुलन बनाना होगा जहां उसकी पकड़ कम है.

    पल्शिकर ने कहा, “भाजपा जिस तरह से भावनात्मक मुद्दों पर जोर दे रही है, जरूरी नहीं कि वह इसे हासिल कर ले. अब विभिन्न क्षेत्रों में इसका एक मुख्य निर्वाचन क्षेत्र है. वहां भारी अंतर से शानदार जीत हासिल करने से स्थानीय विपक्ष का मनोबल गिर सकता है, लेकिन इससे जीती गई सीटों की संख्या बढ़ाने में मदद नहीं मिलेगी.”

    उन्होंने बताया कि गहरे समर्थन वाले निर्वाचन क्षेत्रों और अपेक्षाकृत कम-समर्थन वाले निर्वाचन क्षेत्रों की बहुत अलग-अलग अपेक्षाएं हो सकती हैं, जो भाजपा के लिए एक दुविधा पैदा कर सकती हैं.

    उन्होंने कहा, “ज़्यादा समर्थन वाले निर्वाचन क्षेत्र अधिक तीखी, मुस्लिम-विरोधी नीतियों और विजिलेंट ऐक्शन से सुरक्षा की उम्मीद करेंगे. लेकिन अपेक्षाकृत कम समर्थन वाले निर्वाचन क्षेत्र बुनियादी ढांचे और विकास जैसी चीजों की ज्यादा अपेक्षा करेंगे.”


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    वोट vs सीटें, और विपक्ष के लिए बेहतर स्थान?

    पिछले दो लोकसभा चुनाव वर्षों के बीच, 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के साथ जीत हासिल करने वाले भाजपा सांसदों की संख्या में काफी वृद्धि देखी गई, जिनकी संख्या 136 से बढ़कर 224 हो गई. यानी पहले की तुलना में 88 सांसद बढ़ गए थे.

    इसके विपरीत, कुल सीट संख्या में भाजपा की वृद्धि बहुत ज़्यादा नहीं थी, जो 2014 में 282 से 21 सीट बढ़कर 2019 में 303 हो गई.

    इसका क्या मतलब है? राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, भाजपा के कुल वोट शेयर में लगभग आठ प्रतिशत अंकों की पर्याप्त वृद्धि, सीटों की संख्या में आनुपातिक वृद्धि में तब्दील नहीं हुई. परिणामस्वरूप, अधिक वोट शेयर वाली सीटों का असमान वितरण हुआ.

    राजनीतिक विश्लेषक और कॉलमनिस्ट रशीद किदवई ने दिप्रिंट को बताया कि भाजपा के बढ़ते वोट शेयर का बड़ा श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे को जाता है. आम चुनावों के दौरान, लोग अपने स्थानीय नेताओं के बजाय पीएम उम्मीदवार के लिए वोट डालते हैं।

    Lok Sabha opposition
    क्रेडिटः रमनदीप कौर । दिप्रिंट टीम

    उन्होंने कहा, “जब संसदीय चुनावों की बात आती है, तो भाजपा के वोटों में 12-25 प्रतिशत की वृद्धि होती है (विधानसभा चुनावों की तुलना में). उदाहरण के लिए, दिल्ली में विधानसभा चुनावों में भाजपा को 33 प्रतिशत वोट मिले. (2015 में), लेकिन संसदीय चुनाव (2019 में) में इसे 56 प्रतिशत से अधिक मिला. किसी पार्टी की मूल ताकत और उससे आने वाले चुनावी नतीजों के बीच अंतर होता है.”

    किदवई ने कहा कि लोकसभा चुनाव में भाजपा उम्मीदवारों के वोट शेयर उनकी साख या काम के बजाय मोदी की लोकप्रियता के कारण बढ़ रहे हैं.

    उन्होंने कहा, “वहां मौजूद करिश्माई नेतृत्व के कारण यह एक तरह से अप्रत्याशित लाभ है.”

    एक और डेटा प्वाइंट जो भारत में चुनावी स्थिति पर और अधिक बेहतर तरीके से दिखाता है वह है गैर-भाजपा दलों का वोट शेयर.

    दिप्रिंट के विश्लेषण से पता चलता है कि गैर-बीजेपी पार्टियों ने 2014 में 64 सीटों पर 50 प्रतिशत या उससे अधिक वोट शेयर हासिल किया था. 2019 के चुनावों में यह संख्या लगभग दोगुनी होकर 117 सीटों पर पहुंच गई.

    प्रतिशत के रूप में देखें, तो 2014 और 2019 के बीच इस वोट शेयर के साथ गैर-भाजपा दलों की सीटों में 82 प्रतिशत की भारी वृद्धि हुई. भाजपा की प्रतिशत वृद्धि लगभग 65 प्रतिशत थी.

    विपक्ष इस तथ्य से कुछ सांत्वना पा सकता है, लेकिन इस गणना में गैर-भाजपा दलों में जनता दल (यूनाइटेड), शिरोमणि अकाली दल और संयुक्त शिव सेना जैसे पूर्व राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सहयोगी भी शामिल हैं.

    Lok Sabha polls chart
    ग्राफिकः रमनदीप कौर । दिप्रिंट टीम

    जबकि नीतीश-कुमार के नेतृत्व वाले जेडी (यू) जैसे कुछ पूर्व सहयोगियों ने वर्तमान में भाजपा विरोधी रुख अपना लिया है, तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) जैसे अन्य लोग एनडीए के पाले में लौटने के लिए कमर कस रहे हैं.

    बीजेपी और गठबंधन

    2019 के चुनावों के बाद से, दो चुनावी रूप से महत्वपूर्ण राज्यों में कुछ बड़े बदलाव हुए हैं – बिहार, जिसमें 40 लोकसभा सीटें हैं, और महाराष्ट्र, जिसमें 48 हैं.

    बिहार की जेडीयू ने पिछले साल बीजेपी के साथ अपना गठबंधन खत्म कर लिया, जबकि महाराष्ट्र की एकजुट शिवसेना ने नवंबर 2019 में उससे नाता तोड़ लिया.

    अब नीतीश विपक्षी दलों को एकजुट करने में लगे हुए हैं, जबकि शिवसेना दो हिस्सों में बंट गई है, एकनाथ शिंदे गुट ने अब महाराष्ट्र में भाजपा के साथ सरकार बना ली है.

    Congress leader Rahul Gandhi interacts with Bihar Chief Minister Nitish Kumar and Rashtriya Janata Dal (RJD) chief Lalu Prasad Yadav after the Opposition leaders' meeting in Patna | ANI
    पटना में विपक्षी नेताओं की बैठक के बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) प्रमुख लालू प्रसाद यादव से बातचीत की | एएनआई

    महाराष्ट्र में पिछले दोनों लोकसभा चुनावों में शिवसेना बीजेपी की सहयोगी थी. सेना ने 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के साथ अपनी 10 सीटें बरकरार रखीं, जबकि ऐसी सीटों में भाजपा की हिस्सेदारी 20 से घटकर 15 हो गई.

    बिहार में, भाजपा और जद (यू) ने 2014 में अलग-अलग चुनाव लड़ा था. भाजपा ने 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के साथ दो सीटें जीतीं, जबकि जद (यू) इतने बड़े अंतर से एक भी सीट नहीं जीत पाई.

    हालांकि, 2019 में गठबंधन से दोनों पार्टियों को काफी फायदा होता दिख रहा है. भाजपा के 14 सांसद और जद (यू) के 11 सांसद एक-दूसरे के वोट बैंक का फायदा उठाते हुए भारी वोट शेयर से जीते. इसके अतिरिक्त, उनकी सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) ने ऐसी छह सीटें हासिल कीं.

    प्रोफेसर पल्शीकर का मानना है कि वोट शेयर के अलावा, गठबंधन के लिए महत्वपूर्ण सवाल यह है कि वोट ट्रांसफर होता है या नहीं.

    उन्होंने कहा कि भाजपा को लगता है कि उसे कुछ स्थानों पर वोट हासिल करने के लिए साझेदारों की आवश्यकता नहीं है, लेकिन इस रुख के प्रभाव पर “राज्य-दर-राज्य” आधार पर विचार करने की आवश्यकता होगी.

    उन्होंने कहा, “बिहार में, इससे निश्चित रूप से भाजपा को नुकसान होगा. उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र में, यह जानते हुए कि उसे एक साझेदार की जरूरत है, भाजपा ने अलग हुए शिवसेना समूह को शामिल करने का विकल्प चुना है.”

    तीन राज्यों की कहानी – गुजरात, यूपी, तमिलनाडु

    गुजरात, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु जैसे प्रमुख राज्यों में पार्टियों के वोट शेयरों पर एक नज़र गठबंधन (या उसके अभाव) और भाजपा के चुनावी परिणामों के बीच अंतर्संबंध पर और अधिक प्रकाश डालती है.

    प्रधानमंत्री के गृह राज्य गुजरात में, भाजपा बिना किसी गठबंधन सहयोगी के शासन करती है. इसने 2014 और 2019 दोनों चुनावों में सभी 26 सीटें जीतीं, सभी सांसदों ने 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर हासिल किया. वास्तव में, दर्शन विक्रम जरदोश, जो अब केंद्रीय राज्य मंत्री हैं, का 2019 में 74.47 प्रतिशत के साथ पूरे देश में सबसे अधिक वोट शेयर प्रतिशत था.

    उत्तर प्रदेश में, जिसमें 80 लोकसभा सीटें हैं, भाजपा ने मोदी के पहले राष्ट्रीय चुनाव में 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के साथ केवल 17 सीटें जीतीं.

    पांच साल बाद, ऐसा लगा कि भाजपा के सामने एक कठिन लड़ाई है, जब समाजवादी पार्टी (एसपी), बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) और राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) ने तीन-पक्षीय गठबंधन में उसके खिलाफ एकजुट हो गए.

    हालांकि, गठबंधन से पार्टी की संभावनाओं पर असर पड़ने के बजाय, 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर वाले भाजपा सांसदों की संख्या बढ़कर 40 हो गई.

    Mainpuri: Samajwadi Party patron Mulayam Singh Yadav, his son and party President Akhilesh Yadav and Bahujan Samaj Party supremo Mayawati during their joint election campaign rally in Mainpuri, Friday,
    फाइल फोटो | समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव, उनके बेटे व पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव और बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती अपनी संयुक्त चुनाव प्रचार रैली के दौरान । पीटीआई

    हालांकि, 2019 में, एसपी-बीएसपी-आरएलडी गठबंधन के 13 सांसदों को 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर मिला, जिससे पता चलता है कि गठबंधन ने उनकी संभावनाओं को बढ़ाया होगा.

    तमिलनाडु में, भाजपा ने 2014 में छोटे दलों के साथ गठबंधन किया, लेकिन सीटें जीतने वाले एनडीए के किसी भी उम्मीदवार ने 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर हासिल नहीं किया.

    द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके), ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके), कांग्रेस और अन्य गैर-एनडीए दलों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा. इस चुनाव में जे जयललिता की एआईएडीएमके ने 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के साथ छह सीटें जीतीं.

    2019 के चुनावों में, DMK, कांग्रेस, CPI, CPM, विदुथलाई चिरुथिगल काची (VCK) और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) का गठबंधन एक प्रमुख ताकत के रूप में उभरा, जिसने 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के साथ 27 सीटें हासिल कीं.

    इसलिए, तमिलनाडु ने उत्तर प्रदेश और बिहार के बाद इतने अधिक वोट शेयर के साथ तीसरे सबसे अधिक संख्या में सांसद भेजे.

    क्या तमिलनाडु के नतीजों का यह मतलब निकाला जा सकता है कि एक बड़ा अखिल भारतीय गठबंधन भाजपा का मुकाबला करने में सक्षम हो सकता है?

    प्रोफ़ेसर पल्शिकर का कहना है कि इस तरह के निष्कर्ष निकालना यथार्थवादी नहीं है.

    उन्होंने कहा, “विपक्ष के लिए भी अखिल भारतीय गठबंधन का कोई मतलब नहीं है. भाजपा को हराने में किसी राज्य में राज्य पार्टियों की भूमिका और अतिरिक्त वोटों की आवश्यकता पर बहुत कुछ निर्भर करेगा.”

    दूसरी ओर, किदवई ने कहा कि यह निष्कर्ष “महत्वपूर्ण” है कि गठबंधन में रहते हुए कुछ पार्टियों ने 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के साथ अधिक सीटें जीतीं. लेकिन उन्होंने आगाह किया कि इसकी कोई गारंटी नहीं है.

    उन्होंने कहा, “हमारे पास ऐसे राजनीतिक दल हैं जिनके पास बहुत मजबूत जाति-या समुदाय-आधारित समर्थन है. लेकिन जब वे एक मजबूत नेता को हराने के लिए एक साथ आते हैं, तो यह एक जुए की तरह है. कभी-कभी यह सफल होता है, कभी-कभी ऐसा नहीं होता है.”

    ‘विपक्षी एकता’ का सवाल

    भाजपा प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल ने दिप्रिंट से बात करते हुए दावा किया कि भाजपा अधिक सीटों पर 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर हासिल करने के लिए सक्रिय रूप से काम कर रही है और डेटा इसकी पुष्टि करता है.

    उन्होंने कहा, ”हम जिस रणनीति पर काम कर रहे हैं वह 50 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल करना है. 224 से हम इसे लगभग 300 सीटों तक बढ़ाना चाहते हैं.”

    अग्रवाल ने कहा कि “विपक्षी एकता” कोई ऐसी चीज़ नहीं थी जो भाजपा के नेतृत्व को परेशान करती हो.

    उन्होंने कहा, “सीटों की संख्या में यह वृद्धि दर्शाती है कि हम सही दिशा में काम कर रहे हैं. कुछ लोग हैं जो पूछते हैं कि ‘विपक्षी एकता के बारे में क्या?’ फिर, अमित शाह जी कहते हैं कि हम उन सीटों पर काम कर रहे हैं जहां हमें 50 प्रतिशत से अधिक (वोट शेयर) मिलेगा ताकि विपक्षी एकता का हम पर असर न पड़े.”

    A hoarding announcing the Opposition meeting in Patna | Suraj Singh Bisht | ThePrint
    पटना में विपक्ष की बैठक की घोषणा करने वाला एक होर्डिंग | सूरज सिंह बिष्ट | दिप्रिंट

    हालांकि, विपक्षी नेताओं का दावा है कि पिछले चुनाव 2024 के चुनावों के नतीजे की महत्वपूर्ण भविष्यवाणी नहीं कर सकते हैं.

    कांग्रेस के डेटा एनालिटिक्स विभाग के अध्यक्ष प्रवीण चक्रवर्ती ने स्वीकार किया कि 40 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर एक “महत्वपूर्ण बेंचमार्क” था, लेकिन दावा किया कि चीजें एक समय में बदल सकती हैं.

    उन्होंने कहा, “जैसा कि कहा जाता है वित्तीय बाजारों में पिछला प्रदर्शन भविष्य के रिटर्न का संकेतक नहीं है.”

    इसी तरह, डीएमके के प्रवक्ता सलेम धरणीधरन ने कहा कि 2019 के बाद से कई बदलाव हुए हैं और जनता की भावनाएं बदल रही हैं.

    उन्होंने दावा किया,“वह 2019 था और चुनाव 2024 में हैं. जो कि पांच साल हैं. एक बहुत बड़ा अंतर है. देश में बहुत कुछ बदल गया है. कोविड था और प्रवासी श्रमिकों की कोई उचित देखभाल नहीं की गई. गरीबी में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है. अधिक विभाजनकारी राजनीति हुई है. बीजेपी को अब वह विश्वास हासिल नहीं है जो कि 2019 में था.”

    धरणीधरन के मुताबिक, वोट शेयर पर आधारित गणना से पता चलता है कि 2024 में बीजेपी को हराया जा सकता है. उन्होंने कहा,’बीजेपी को कुल मिलाकर 37 फीसदी से ज्यादा वोट शेयर नहीं मिला. उनकी अधिकांश सीटें मुट्ठी भर हिंदी भाषी राज्यों से आईं. इसका मतलब है कि 63 प्रतिशत वोट शेयर विपक्ष के लिए है.”

    उन्होंने कहा कि विपक्ष “निश्चित रूप से एक साथ आ रहा है” और सत्ता विरोधी लहर बाकी सब संभाल लेगी.

    उन्होंने दावा किया, “यहां तक कि अगर बीजेपी 200 सीटों पर सिमट जाए तो विपक्ष के पास 300 सीटें होंगी. लेकिन मुझे यकीन है कि भाजपा 150 से अधिक सीटें पार नहीं करेगी और हम लगभग 300 सीटें जीतने में सफल रहेंगे.”

    ‘इंदिरा लहर याद रखें…’

    यह पूछे जाने पर कि 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए भाजपा के वोट शेयर में बढ़ोतरी का क्या मतलब है, प्रोफेसर पल्शिकर ने कहा कि डेटा से पता चलता है कि पार्टी ने “खुद की स्थिति को काफी मजबूत कर लिया है”, लेकिन यह देखना बाकी है कि क्या 2019 के रुझान जारी रहते हैं.

    किदवई ने बताया कि पूर्व में राजनीतिक हवाएं तेजी से दिशा बदलती रही हैं.

    उन्होंने कहा, ”किसी एक व्यक्ति से प्रेरित पार्टियां इस फैसले को खारिज कर देती हैं. लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है.” उन्होंने कहा, ”अगर आप 1971 के चुनावों को देखें, तो इंदिरा लहर में बहुत से लोग जीते थे, लेकिन 1977 के चुनावों तक, इंदिरा खुद हार गईं. तो, वे सभी हार गए. यह एक बहुत ही अधिक जोखिम.”

    (संपादनः शिव पाण्डेय)
    (इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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